Shastri Baba
Barfani Dada
Mauni Baba ke bachpan ka photo
श्री
शिव चालीसा
।।दोहा।।
श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥
जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥
अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥
देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥
किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥
तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥
किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥
जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥
मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी॥
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥
शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं॥
नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥
जो यह पाठ करे मन लाई। ता पार होत है शम्भु सहाई॥
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे ॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा। तन नहीं ताके रहे कलेशा॥
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥
जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे॥
कहे अयोध्या आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥
॥दोहा॥
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करो चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥
योगीराज श्री श्री 1008 देवेन्द्र शरण ब्रह्मचारीजी महाराज (मौनी बाबा)
Message by Er. B K Singh
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Er. B K Singh
हमारा हिन्दू धर्म विश्व का सबसे
प्राचीन धर्म है। इसे विश्व के सभी लोगों ने माना है एवं जाना है। हमारे
हिन्दू धर्म में भगवान के विभिन्न स्वरूपों, अवतारों एवं देवी देवताओं
का वर्णन है। मेरा ऐसा मानना है कि हिन्दू धर्म में भगवान के जितने भी
स्वरूपों का वर्णन है सभी इस ब्रह्माण्ड में मौजूद हैं एवं इस
ब्रह्माण्ड का नियंत्रण करते हैं। सक्षम मनुष्य अपनी साधना, तपस्या
योग एवं हठयोग के बल पर अपने आराध्य देव का साक्षात दर्शन करके अपने
जीवन को धन्य बनाते हुये सुख, शांति एवं समृद्धि से परिपूर्ण होकर
परोपकार के रास्ते पर चलते हुए अपना एवं जगत के कल्याण के काम में लग
जाते हैं।
आम जन को भगवान का साक्षात्कार नहीं हो पाता है क्योंकि हम अपने
सांसारिक गृहस्थ जीवन में इतने उलझे रहते हैं कि भगवत साक्षात्कार का
कोशिश नहीं कर पाते हैं। हम भगवत पूजन एवं भगवत आराधना घर में या मंदिर
में भगवान की मूर्ति के माध्यम से करते हैं। संत भगवान के प्रतिस्वरूप
होते हैं जिन्हें भगवान अलग-अलग कालखण्ड में अलग-अलग जगहों पर आम जन के
बीच भेजते हैं जो आम जन की तरह संसार में जन्म लेते हैं एवं सांसारिक
नियमों का पालन करते हुये गृहस्थ आश्रम त्याग कर संत हो जाते हैं। संत
से भगवान प्यार करते हैं एवं संत हम आम जन से प्यार करते हैं। हम आम जन
संत के रूप में भगवान का दर्शन करके अपना जीवन धन्य करते हैं। संत का
दर्शन, पूजन एवं सत्संग आम जन को हमेशा सुलभ रहता है।
संत के दर्शन पूजन एवं सत्संग से प्राणियों के दुखों का नाश होता है एवं
सुखों की प्राप्ति होती है, पापों से मुक्ति मिलती है एवं कुविचार
सुविचार में बदल जाते हैं। उसके बाद प्राणी सुख, शांति एवं समृद्धि से
परिपूर्ण होकर परोपकार के रास्ते पर चलते हुए अपना एवं जगत के कल्याण
के काम में लग जाता है। हमें अपनी प्राचीन परम्परा के जो भी गिने चुने
संत अभी इस धरा पर मौजूद हैं उनका दर्शन, पूजन एवं सत्संग करके अपने
जीवन को धन्य बनाना चाहिए।
समाज और संत के बीच
लोक कल्याण हेतु सेतु बनाने वाला
महापुण्य का भागी होता है।
परिश्रम और स्वावलम्बन का कोई विकल्प नहीं है।
जीवात्मा परमात्मा का ही अंश है। वह असीम अनंत चैतन्य शक्ति का ही
प्रतिरूप है। अत: आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं। यह आत्मत्व ही
पूरे संसार में परिव्याप्त है और इसी को लोग विश्वात्मा भी कहते हैं।
भौतिकता के वशीभूत होकर जीव इस सत्य को भुला बैठता है और अपने को ही
कर्ता मान लेता है। संसार की विषय वासनाओं से बंधा जीवन काया के वश में
हो जाता है। संसार का आकर्षण, जीव द्वारा प्राप्त किया गया ऐश्वर्य जीव
के पराभव का कारण बनता है - 'भव, विभव पराभव कारण।
इस पराभवता के कारण धर्म क्षीण होता जाता है, आसुरी प्रवृत्तियां बढ़ती
जाती हैं। जब-जब ऐसी स्थिति आती है तब-तब महापुरुषों, संतों एवं ऋषियों
का आविर्भाव होता है। राम और कृष्ण जैसे महापुरुषों ने अवतार लेकर जहां
भारत को आसूरी प्रविर्तियों से मुक्त करके धर्म की पुरस्र्थापना की है
वहीं इस देश की मिटटी ने कबीर, नानक, दादू, जायसी, सूरदास, तुलसीदास आदि
संतों को जन्म दिया है, जिन्होंने अपनी साधनात्मक उपलबिधयों से समाज
में ऊर्जा भरी।
भगवान जब अनुग्रह करते हैं तो अपनी दिव्य ज्योति महापुरुषों में उतार
देते हैं। वे अपने आचरण से लोगों को राह दिखाते हैं। गिरे हुए लोगों का
उद्धार करते हैं। उनका 'अवतार होता है और दूसरी और लोगों का 'उद्धार
होता है। 'अवतार और 'उद्धार की यह प्रक्रिया प्रभु के प्रेम का सक्रिय
रूप है।
परमात्म शक्तियों का दिव्य प्रकाश, उसकी आभा संसार में सर्वत्र व्याप्त
है। उसका प्रेम उसकी कृपा हम भी प्राप्त कर सकते हैं, बशर्ते हम अपने
में उसे ग्रहण कर पाने की क्षमता पैदा कर लें। साधक अपनी साधना से
ईश्वर और अपने बीच वह सेतु बना लेता है जिससे दिव्य शकितयों का प्रसार
उस तक होने लगता है। हम इतनी साधना भले न कर सकें, पर यदि परमात्मा को
साक्षी रखकर हम कार्य करें तो सांसारिक बंधन छूटने लगता है। हमारा
दृष्टिकोण उदार और मन निर्मल हो जाता है। ईश्वर और हमारे बीच स्वत: वह
सेतु बन जाता है कि ईश्वर की कृपा, उसका अनुग्रह हमें प्राप्त होने लगता
है।
अपना जीवन सुखी
बनाने के लिये नीचे लिखे नियमों का पालन करना चाहिए :
कभी निराश मत हों।
आमदनी का कुछ हिस्सा बचा कर रखें।
एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट मत करें।
परिश्रम, संयम और त्याग का अभ्यास करें।
ईश्वर को हर समय अपने साथ देखें।
आज का काम कल पर न छोड़े।
जिसने अपने आप पर नियंत्रण कर लिया वह अवश्य ही सफलता प्राप्त करता है।
जब मनुष्य आत्म संयमी हो जाता है तो वह अपने में नियंत्रण करने में सफल
हो जाता है तो वह परम शांति और मधुरता का अधिकारी हो जाता है। तब वह
अपने लक्ष्य की और बढ़ता है और एक दिन सफलता को अवश्य प्राप्त करता,
उन्नति का अधिकार पाता है, यह उसकी सबसे बड़ी विजय है।
सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया ।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु माँ कश्चिद् दु:खमाप्नुयात ।।
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Message by Er. B K Singh
Chairman, Brahmchari Baba Satsang Samiti
हमारा हिन्दू, धर्म विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है। इसे विश्व के सभी लोगों ने माना है एवं जाना है। हमारे हिन्दू धर्म में भगवान के विभिन्न स्वरूपों, अवतारों एवं देवी देवताओं का वर्णन है।